‘खुशी’

       

खुशी, कल मिली थी मुझसे एक सोते बच्चे के स्मित अधरो में,

मोहक,प्रमुदित,कुटिल,स्वयं में खोये स्वरों में 

मैने पूछा कौन हो तुम चंचल हो,अधीर हो य़ा रहती हो कहीं व्यस्त,

कितनी मनुहार पर आती हो,नहीं रहने देतीं अल्मस्त 

खुशी वेदना व व्यंगय मिश्रित मुसकराई,

बोली इतनी सहज,सरल,सौम्य मेैं पर कभी ना इठलाई 

मैं तो हूँ शरणार्थी ,कभी मन के पाट तो खोलो 

मंथर समीर का झोंका हूँ कभी स्वयं को तो टटोलो 

भौतिकता में तलाशते हो और कहते हो हूँ क्षणिक,

बसेरा ढूँढते हो मेरा नहीं मानते प्रमाणिक 

मैं देवालय के शँखनाद में,मैं अंजालि के प्रसाद में 

मृदा के भँगुर कणों में ,पानी के बुलबुलों में 

पुष्प की वर्तिका में ,भ्रमर के गुंजन में 

पुस्तकों की धूल में ,कारखानों के धुएँ में 

चलती लेखनी में,प्रतयेक शब्द की वर्तनी में 

मैं हर मन का भाव हूँ,सुगम उपलब्ध हूँ

कपटी के लिये दुर्गम किंतु सरल का प्रार्बध हूँ

कभी संसारिकता से मुक्त हो तो न्यौता भेज देना 

मन की परतों को खोदना,बिना दस्तक दिये अंदर बैठे देख लेना 

मैं तो हू मृगमारिचिका ज़ितना पीछे दौड़ौगे उतना छकाऊँगी 

ठहराव ले लोगे तो तुम में ही समा जाऊंगी

सोते बच्चे ने नींद में जोर से  किलकारी भरी

अब खुशी उसकी माँ और मेरे अधरों पर भी आ बसी 

                                          – पूजा सक्सेना

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