‘सुहाये भर की’

मैं थी अपने देस में भली।
सखी बदली और मेरी जमती थी टोली।
मैं बिन बुलावे तो नही घुमड़ी।
उतावले सोते सी नही उमड़ी।
व्याकुल पलकों के पाँवड़े बिछे।
मनुहार चली,देव पूजे-ढोके।
मैं तभी झमाझम बरसी।
झाड़ अंटी,झड़ लग अटकी।
करे गीले समस्त गात-पात,घाट-बाट।
भरे लबालब बासन-बाँध, पोखर-तालाब।
सूनी पहाड़ियों को मैंने पखारा।
उघड़ी देह को हरा पहना ढाँका।
मैं कुछ दिन क्या टिकी?
ऊब बन खटकी?
कीट-जोंक मेरी गिरोह के।
काई-सीलन मेरी गिरह के।
रात की काली ठसक मैंने लूटी!
तारों की चटक चाँदी मैंने कूटी!
शीशे के किवाड़ मेरे मुँह पर भिड़ाये।
याचक बन मैंने कितने खटखटाये।
हार मैं टकरा-टकरा वहीं लुढ़की।
अंदर वालों की सुनी मैंने घुड़की।
मन भर गए को अब क्या खिलाना?
भर पाये को क्या छलकाना?
मनुज का नुगरापन यही है।
मेरा भी रूकने का मन नही है।
ताल अभाव से जब पुनः रीतेंगे।
उसी आसमानी दर पर ही लौटेंगे।
…..पूजा ‘हरि’सक्सेना…

3 thoughts on “‘सुहाये भर की’

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  1. ​​​जीवन एक परख और कसौटी है​,​ जिसमें अपनी सामर्थ्य का परिचय देने पर ही कुछ पा सकना संभव होता है।​

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